मनुष्य मन में विचारों की तरंगें उठती रहती हैं. मनुष्य में ज्ञान है.बुद्धि है.चिन्तना शक्ति है.सद्यः फल प्राप्ति की क्षमता है.उसमें अपने सप्नोंको साकार करने की चतुराई है.फिर भी वह दुखी है.क्यों?
उसमें स्वार्थ है;ईर्ष्या है;लोभ है;काम है;मद है;भविष्य के लिए अपने पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए संपत्ति जोड़ने का विचार है.ये बुरे गुण उसके दुख का कारण है.
आज-कल jahaan देखो ,वहाँ विज्ञान का चमत्कार है.यह तो मनुष्य के सुख साधन है.सुखों के साधन दुःख का बुनियाद बन जाते हैं.सुविधाएँ रईसों के लिए है.वे ही लाखों के खर्च में अपने लिए इलाज करवा सकते हैं.वे ही havayee जहाज की यात्रा कर सकते हैं.पञ्च - स्टार होटल-आवास का आनंद लूट सकते हैं. बढ़िया खाना -कपडा-इमारत का सुख भोग सकता हैं.
तब ये अविष्कार,सुख साधन प्रकृति से मनुष्य को दूर ले जाते हैं.इतनी सुविधाएँ होने पर भी उसको स्वाभाविक संतोष अर्थात आत्मसंतोष नन्हीं मिलता.
आधुनिक प्रगति के साथ-साथ रोगों का आवास शरीर बन गया है.
हमारे पूर्वज रोगके मूल कारण वाद,पित्त ,कफ बताकर उनसे बचने
के लिए भोजन की रीति बनायी है.वह हमारे देश की जलवायु के अनुकूल है.हमारा देश गरम है.पसीना निकलता है.अतः ढीला कपड़ा पहनना चाहिए.खासकर दक्षिण भारत में शू-साक्स के कारण ही बीमारियाँ बढती
है.हमारे देश में पद-धोवन को प्राथमिकता dee gayi हैं.कारण सड़क पर थूकने का हम आदि बन gaye हैं.धुल दूसरित पादों के कारण बीमारियाँ बढकर संक्रामक बन जाती है.विधेशियों को देखकर हम उनको अनुसरण करते हैं.हमारा अन्धानुकरण कष्टों का मूल है.वे हमारा अनुकरण सोच-समझकर करते हैं.वे योग का महत्व जानते हैं.वहां इसका प्रचार है.योग सिखाने वाले खूब कमाते है.वे बड़े-बूढों का आदरसत्कार करते हैं.सम्मिलित परिवार की ओर सोच रहे हैं.
भारत में हम अपनी मात्रु भाषा बोलने में अशिक्षित का अनुभव करते है.
हमारे स्वास्थय के अनुकूल का देशी खाना हम पसंद नहीं करते.
कालीमिर्च,हल्दी,अदरक,करेला,आवला ,खीर,जम्भीरी,तुलसी,बिल्व,प्याज,
आदि का खाना नहीं रुचता.केले के फूल. धड,आदि खाते नहीं.कारण उसे काटने में देरी लगेगी.आलसी भी जड़ में हैं.
लहसन खाना,लौकी खाना तो कुछ जातिवाले पाप समझते हैं.
जितना हम भारतीयता से दूर जाते हैं ,उतना कष्ट भी पास आते हैं.
त्याग,परोपकार,सादाजीवन,संयम,ब्रह्मचर्य पालन आदि उच्च गुण घटते जा रहे हैं.जरूरतों की इच्छा जरूरतों से ज्यादा बढ़ने पर असंतोष ही बचेगा.
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